उत्तराखंड के लोगों ने अलग राज्य बनने के बाद से ही रोजगार को लेकर पहाड़ों में काफी संघर्ष किया है। देखते ही देखते स्थिति यह बनी की लोग रोजगार और बेहतर शिक्षा को पाने के लिए पहाड़ों को छोड़ने पर मजबूर हो गए और वह पलायन करके शहरों में बस गए।
पिछले कुछ सालों में सामने आए आंकड़ों के मुताबिक उत्तराखंड में पिछले 15 सालों में 32 लाख से अधिक लोगों ने अपने गांव को छोड़कर शहरों की और पलायन किया है। लेकिन हाल ही में कोरोना जैसी भयंकर बीमारी की वजह से शहरों में काफी रोजगार ठप हो गए तो ऐसे में सीमित समय के लिए पलायन कर के शहरों में बसे हुए कुछ परिवार और युवा वापस अपने गांव की और भी लौटने लगे। लेकिन आज हम एक ऐसे गांव के बारे में बात करने जा रहे हैं जहां पर देशभर में लॉक डाउन और कोरोना जैसी महामारी के बाद भी कोई भी परिवार या व्यक्ति गांव वापस नहीं लौटा ओर यह गाँव अपनों की रहा देखता रह गया।
सरकार द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक लॉकडाउन के बाद लगभग 3 लाख से अधिक लोग उत्तराखंड में अपने गाँवों को लौट आए हैं लेकिन उत्तराखंड के सबसे प्रसिद्ध जिलों में से एक पौड़ी गढ़वाल के क्लजीखाल ब्लॉक में भूत गांव (Ghost Village) के नाम से मशहूर बलूनी गाँव (Baluni village) ऐसा है जहां कोई भी वापस अपने गाँव नहीं लौटा। बलूनी गांव ढ़ाई साल पहले तब सुर्खियों में आया था जब वहां पूरे गांव में सिर्फ एक अंतिम निवासी श्यामा प्रसाद रह गए थे। आज से लगभग 9,10 साल पहले हुई 2011 की जनगणना के अनुसार उस समय इस गांव की जनसंख्या 32 थी हालांकि धीरे-धीरे वह संख्या भी कम होती गई ।
पिछले साल एक निजी चैनल कोई दिए गए अपने साक्षात्कार में श्यामा प्रसाद ने अपने दर्द को बयां किया था और उस समय वह 66 साल के थे,जो कि वहीं पर खेती बाड़ी करके अपना गुजारा बसरा करने के लिए मजबूर थे।पिछले कुछ समय में उत्तराखंड के सबसे प्रसिद्ध जिलों में से पौड़ी गढ़वाल के गांव के इन हालातों पर काफी चर्चा भी हुई जिसके बाद सरकार ने एक पलायन आयोग का गठन किया,लेकिन उसका भी कोई खास प्रभाव पलायन पर नहीं पड़ा।
आज के समय में बलूनी गांव की स्थिति यह है कि यहां के हर घर पर ताला लगा हुआ है।घर के खेतों-खलियानों, तिबारी-डिंडियाल्यो में झाड़ियां और घास जमी हुई है।जो कि साफ दर्शाती है कि यहाँ की मौजूदा स्थिति क्या है और तभी कोरोना के इस संकट के समय में भी कोई वापस नहीं लौटा।
इस गांव के ज्यादा घर अब बंजर हो चुके हैं और उनमें से अधिकतर घर टूट कर बिखरे पड़े हैं। सरकार द्वारा किए गए एक सर्वे के मुताबिक जब यहां से पलायन किए गए लोगों को पलायन करने के बारे में पूछा गया तो उन्होंने शिक्षा और स्वास्थ जैसे सुविधाओं की कमी को ही अपना महत्वपूर्ण बिंदु बताया, उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं है कि हम गांव से दूर रहना चाहते हैं या हमें गांव पसंद नहीं हैं लेकिन हमारी मजबूरी है कि वहां पर स्वास्थ्य सेवाएं नहीं हैं और हमारे बच्चों के लिए वहां पर शिक्षा की भी कोई व्यवस्था नहीं है इसीलिए हमें पलायन करके शहरों में रहना पड़ रहा है।
वहीं के एक निवासी ने बताया कि हम हर साल जून के महीने में दो से तीन दिनों के लिए एक धार्मिक कार्यक्रम का आयोजन करते हैं जिसके लिए गांव वालों ने एक समुदाय भवन और मंदिर का भी निर्माण करवाया है और इस मंदिर की पूजा के लिए हर साल जून के महीने में गांव के हर निवासी को आमंत्रण दिया जाता है और वह इसमें परिवार के साथ शामिल होते हैं और इसी सामुदायिक भवन में रहते हैं इस बीच गांव में उस वक़्त मेले जैसा माहौल बना रहता है, पूजा पाठ खत्म करने के बाद लोग वापस शहरों की ओर लौट जाते हैं। कयास लगाए जा रहे थे कि कोरोना जैसी महामारी और लोक डाउन के बाद बलूनी गांव के कुछ निवासी वापस अपने गांव की और लौटेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और बलूनी गांव के घर अपनों की वापसी को ताकते – ताकते बंजर के बंजर ही रहने को मजबूर हैं।